Jul 7, 2012

"खोखली जिंदगी"





बिन चुभे एक चुभन
बिन जागे एक नींद
होठ गीले जुबां प्यासी
चेतना की खोखली ज़मीन
दिन के आठ पहर 24 घंटे
दौड़ क्यों नहीं रुकती ?
आत्मा थक जाती
लालच कहां झुकती
ऐसा क्या जो इतराऊं
कौन सा सपन संजोऊं
किस फर्ज की कसम खाऊं
नदी दिखी वो समंदर
आसमां समझा वो बवंडर
जिंदगी जागीर लगती है
गिरे तो फरेब
उठे तो तकदीर लगती है !!

No comments: